विद्या शस्त्रस्य शास्त्रस्य द्वे विद्ये प्रतिपत्तये ।
आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितियाद्रियते सदा ।।
अर्थात् शस्त्र-विद्या एवं शास्त्र-विद्या यानी ज्ञानार्जन, दोनों ही मनुष्य को सम्मान दिलवाती हैं । किंतु वृद्धावस्था प्राप्त होने पर इनमें से प्रथम यानी शास्त्र-विद्या उसे उपहास का पात्र बना देती है, जब उस विद्या का प्रदर्शन करने की उसकी शारीरिक क्षमता समाप्तप्राय हो जाती है । लेकिन शास्त्र-ज्ञान सदा ही उसे आदर का पात्र बनाये रखती है । यहां शस्त्र-विद्या से कदाचित् उन कार्यों से है जिनमें दैहिक क्षमता तथा बल की आवश्यकता रहती है । प्राचीन काल में अस्त्र-शस्त्र चलाना एक प्रमुख कार्य रहा होगा । आज उनकी बातें सामान्यतः नहीं की जाती हैं । विभिन्न प्रकार के बौद्धिक कार्यों की महत्ता इस युग में अपेक्षया बहुत बढ़ चुकी है ।
हितोपदेश, श्लोक ७
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