Friday, August 7, 2020

                     विद्या शस्त्रस्य शास्त्रस्य द्वे विद्ये प्रतिपत्तये ।

                        आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितियाद्रियते सदा ।।


अर्थात् शस्त्र-विद्या एवं शास्त्र-विद्या यानी ज्ञानार्जन, दोनों ही मनुष्य को सम्मान दिलवाती हैं । किंतु वृद्धावस्था प्राप्त होने पर इनमें से प्रथम यानी शास्त्र-विद्या उसे उपहास का पात्र बना देती है, जब उस विद्या का प्रदर्शन करने की उसकी शारीरिक क्षमता समाप्तप्राय हो जाती है । लेकिन शास्त्र-ज्ञान सदा ही उसे आदर का पात्र बनाये रखती है । यहां शस्त्र-विद्या से कदाचित् उन कार्यों से है जिनमें दैहिक क्षमता तथा बल की आवश्यकता रहती है । प्राचीन काल में अस्त्र-शस्त्र चलाना एक प्रमुख कार्य रहा होगा । आज उनकी बातें सामान्यतः नहीं की जाती हैं । विभिन्न प्रकार के बौद्धिक कार्यों की महत्ता इस युग में अपेक्षया बहुत बढ़ चुकी है ।
हितोपदेश, श्लोक ७

Saturday, August 1, 2020

                              संयोजयति विद्यैव नीचगापि नरं सरित् ।
                            समुद्रमिव दुर्धर्षं नृपं भाग्यमतः परम् ।।

अर्थात् जिस प्रकार नीचे की ओर बहती नदी अपने साथ तृण आदि जैसे तुच्छ पदार्थों को समुद्र से जा मिलाती है, ठीक वैसे ही विद्या ही अधम मनुष्य को राजा से मिलाती है और उससे ही उसका भाग्योदय होता है । आधुनिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में राजा का तात्पर्य अधिकार-संपन्न व्यक्तियों से लिया जाना चाहिए जो व्यक्ति की योग्यता का आकलन करके उसे पुरस्कृत कर सकता हो । विद्या ही उसे इस योग्य बनाती है कि वह ऐसे अधिकारियों के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत कर सके और अपने ज्ञान से उन्हें प्रभावित कर सके ।

हितोपदेश